पहचान ख़ुशी की!


जिंदगी के बहुत रंग है। और अगर आप एक औरत है, तो बचपन से लेकर बुढ़ापे तक आपको अलग अलग किरदार निबाहने होंगे मेरी तरह। मै ख़ुशी, ये मेरी कहानी है, माध्यम वर्ग परिवार मे पैदा हुई पर मेरे सपने बिकुल भी मध्यम नहीं थे। चूकि में अपने परिवार की दूसरी लड़की थी तो दादी को हमेशा से ये दुःख था काश एक लड़का हो जाता और कुछ सालो में उनकी मुराद भी पूरी हो गयी हमारा एक भाई भी हुआ। हर माध्यम वर्ग की तरह मेरे पिता जी को भी शहर जाना पड़ा घर का पालन पोषण करने के लिए। पर मुझे इस चीज का दुःख नहीं हुआ क्योकि पिता जी जब भी शहर से आते हम दोनों बहनो के लिए कुछ न कुछ लेते आते।  हम खुश  थे परिवार भरा पूरा था दादा, दादी, माँ , हम दोनों बहने और मेरा भाई।

पर जिंदगी कहा वैसे ही चलती है जैसा हम चाहते है पिता जी की शहर में तबियत बिगड़ने का तार आया और माँ को छोटे भाई के साथ शहर जाना पड़ा।  कुछ दिनों में पिता जी तो ठीक हो गए पर माँ वापिस अब नही आ सकी।  क्योकि छोटा भाई अब पढ़ने लायक हो गया था और वो वही शहर में एक अच्छे स्कूल में पढ़ने लगा।  और गांव में भी हम दोनों बहने ने अपनी पढाई शुरू कर दी। दादा दादी हम दोनों बहनो का बहुत अच्छे से ख्याल रखते थे। कुछ सालो बाद मेरी दादी बीमार हो गयी।  और उनके कहने पर मेरी बड़ी दीदी जो की अभी अपनी पढाई भी पूरी नहीं कर पायी उसकी शादी करा दी गयी। और मैं फिर से अकेले पड गयी। अब मेरा मन गांव में बिलकुल नहीं लगता था में भी शहर देखना चाहती थी। मेरे पिता जी ने मेरा मन पढ़ के मुझे शहर बुला लिया। दिल्ली में आते ही मुझे अच्छा लग रहा था यहाँ माँ थी पिता जी थे, पर यहाँ करने को कुछ नहीं था मै पढ़ी लिखी थी इसलिए पिता जी ने अपने ही ऑफिस में मुझे अकॉउंट की नौकरी लगवा दी। धीरे धीरे मेरी अकॉउंट पे अच्छी जानकरी हो गयी। इसलिए मैंने कंपनी बदल के दूसरी जगह नौकरी पकड़ ली। जहा मुझे अच्छे पैसे मिलते थे। पर मुझे पढ़ने का बहुत शौख था सो हमेशा अपने पैसो से किताबे खरीद के पढ़ती रहती।

पर मेरे पिता जी को मेरी शादी की चिंता सताने लगी और उन्होंने लड़का देखना शुरू कर दिया।  पर बहुत दिनों तक कोई अच्छा लड़का नहीं मिला और मुझे अपने सपने जीने का कुछ और समय मिल गया। लकिन कुछ ही दिनों में फिर एक रिश्ता आया पापा को लड़का पसंद आया, लड़का  किसी प्राइवेट कंपनी में अच्छे पद पर, घर भरा पूरा था। और वो दी भी आ गया जब वो लोग मुझे देखने आने वाले थे, मै बहुत घबराई हुई थी। हर लड़की वालो की मेरे यहाँ भी पूरी तैयारी थी खातिरदआरी की। उन लोगो ने मुझे पसंद कर लिया और कुछ ही दिनो में सहगाई और फिर शादी हो गयी।  सब कुछ इतनी जल्दी हुआ की में ये भी सोच नहीं पायी की में क्या चाहती थी।  मेरे क्या सपने थे। और मै अपनी गृहश्ती को समभालने में लग गयी। भूल गयी उन सब चीजों को जिसके लिए मैं कभी अपने पिता जी से लड़ जाया करती थी अपने सपने, अपना अश्तित्व, अपनी उड़ान और कैद हो गयी एक घर में। ऐसा नहीं था की मुझे ससुराल में कोई दुःख, कोई तकलीफ थी यहाँ सब अच्छे थे वो मेरा मेरा बहुत ख्याल रखते है। पर मेरी पहचान, मेरी सख्शियत कही खो गयी थी और में अब ग़ृहङी बन चुकी थी। पर कुछ बाकि था मुझमे, इशलिये एक दिन मैंने अमन से अपने दिल की बात रखी की मै नौकरी करना चाहती हूँ ये सुनते ही उनका चेहरा लाल हो गया जैसे मैंने बहुत बड़ी गलती कर दी है। वो मुझ पर चीख पड़े जब में नौकरी कर ही रहा हूँ और मेरी कमाई से घर चल जाता है तो तुम्हे कमाने की क्या जरुरत हैं। पर आज मैं पीछे नहीं हटना चाहती थी मैंने शांत स्वर में उन्हें समझाया। मै शादी से पहले नौकरी करती थी और ये मुझे एक पहचान देता है। ये मुझे बताता है की मेरा भी अश्तित्व हैं इस समाज में। पर वो मेरी एक सुनाने को राज़ी थे वो मुझे झटकते हुए बोले जिस समाज में तुम अपनी पहचान ढूंढ रही हो वही कल मुझ पर मेरे परिवार पर हॅसेगा। मैंने कुछ कहना चाहा पर वो कमरे से बाहर चले गए। हमारे बीच की बातचित अब ख़तम हो चुकी थी हर औरत की तरह मैंने भी अपने मन को समझा लिया।  घर से फ़ोन आता माँ पूछती बेटी कैसी हो और मै हँस के बोल देती ख़ुशी बहुत खुश हैं। मैंने इसी भाव से जीना शीख लिया।

दिन बीतते गए और मै घुट घुट के जीती चली गयी। पर उनके व्यवहार में कोई बदलाव नहीं आया वो अब छोटी छोटी बात पे घुसा हो जाते मैंने अपने रिश्ते को सँभालने की बहुत कोशिश की पर एक दिन उन्होंने में अपने पति और ताकत का प्रमाण् दे दिया उन्होंने मुझ पर हाथ उठाया वो भी बस छोटी सी बात पर। मुझसे अब रहा नहीं गया और मै अपना सामान लेकर अपने पिता जी के घर आ गयी। अब हमारे रिश्ते में कहने को कुछ भी नहीं बच गया था  लकिन जिसका मुझे डर था वही हुआ उन्होंने डिवॉस के पेपर मेरे घर भेज दिए। मैं हताश हो गयी और मैंने जीने की आशा खो दी।  ये देख कर मेरे पिता जी ने उनसे वाले बात करने का एक और मौका माँगा पर वो बात करने को राज़ी नहीं हुए। और हम दोनों अलग हो गए। क्या अपनी पहचान बनाना एक औरत के लिए इस समाज में इतना बड़ा गुनाह हैं। ये मैंने कभी नहीं सोचा था, पर मैंने हार नहीं मानी और अपनी जिंदगी को अपने ढंग, अपने फैसले से जीने के लिए निकल पड़ी, एक दिन मैंने पिता जी का घर भी छोड़ दिया और शायद इशलिये भी की मेरी वजह से उन्हें हर जगह से तने न सुनने पड़े।  मैंने अपनी पुरानी कंपनी में बात की और मुझे नौकरी मिल गयी और रहने के लिए घर भी। मैंने अपनी पहचान बनाने के लिए हर रिश्ते को दाव पे लगाया था। और इस  नौकरी से मेरा वो सपना पूरा होने वाला नहीं था। मैंने सिविल सर्विसेज की तयारी शुरू कर दी वक्त बीतता गया और परीछा की घडी भी सामने आ गयी।  परीछा हुई पर मै विफल हो गयी। उस दिन में मुझे पता चला जिंदगी में अपनी पहचान बनाना इतना आसान नहीं मैंने पिछले परीछा की सारी कमियों को ध्यान में रखते हुआ फिर से तयारी शुरू कर दी, दिन को दिन और रात को रात नहीं समझे बहुत मेहनत की और मैंने परीछा उत्रिँड कर ली।

और आज में जिला आयुक्त हूँ पूरे जिले की पहली महिला जिला आयुक्त। मेरा सारा परिवार आज मेरे साथ है आज पिता जी नजरे चुरा के गली से नहीं गुजरते। आज वो गर्व से कहते है मैं ख़ुशी का पिता हूँ। ये कहानी हर उस ख़ुशी की है जिसकी ख़ुशी चार दीवारी में नहीं, खुले आसमान में उड़ने के लिए पैदा हुई हैं । अपनी पहचान बनाने में है।


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